ईश्वर ने दुनिया की छोटी-छोटी खुशियां तो तुम्हें दे दी हैं, लेकिन सच्चा आनन्द अपने पास रख लिया है। उस परम आनन्द को पाने के लिए तुम्हें उनके ही पास जाना होगा। ईश्वर को पाने की चेष्टा में निष्कपट रहो। एक बार परम आनन्द मिल जाने पर सब-कुछ आनन्दमय है। परमानन्द के बिना संसार की खुशियां अस्थाई हैं। तुमने ईश्वर को सदैव पिता के रूप में देखा है परंतु क्या तुम ईश्वर को एक शिशु के रूप में देख सकते हो? जब तुम ईश्वर को शिशु के रूप में देखते हो तो तुम्हारी कोई मांग नहीं होती। ईश्वर तो तुम्हारे अस्तित्व का अन्त:करण है। ईश्वर तुम्हारा शिशु है। वे तुमसे बच्चे की तरह चिपककर रहते हैं जब तक तुम वृद्ध होकर मर नहीं जाते। संसार में उनके पोषण के लिए उन्हें तुम्हारी आवश्यकता है। साधना, सत्संग और सेवा ईश्वर के पोषक आहार हैं। ईश्वर अनेक क्यों नहीं हो सकते? यदि ईश्वर ने मनुष्य को अपनी ही छवि के अनुसार बनाया है, तो उनकी छवि क्या है? अफ्रीकी, मंगोलियन, कॉकेसियन, जापानी या फिलिपिनो? मनुष्य इतने प्रकार के क्यों हैं, वृक्ष सिर्फ एक प्रकार का नहीं होता। सांप, बादल, मच्छर या सब्जी सिर्फ एक प्रकार के नहीं। तो फिर केवल ईश्वर को ही एक क्यों होना चाहिए?  
जिस चेतना ने इस सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की है और जो विविधता प्रेमी है, वह नीरस कैसे हो सकती है? ईश्वर को विविधता पसंद है, तो वे भी अवश्य ही वैविध्यपूर्ण होंगे। ईश्वर अनेक नाम, रूप और प्रकार से अभिव्यक्त होते हैं। कुछ विचार-धारा के व्यक्ति ईश्वर को उनके विभिन्न रूपों में प्रकट होने की स्वतंत्रता नहीं देते। वे उन्हें एक ही रूप में चाहते हैं। अवसर के अनुसार जब तुम अपना रूप बदलते हो तो फिर कैसे सोच सकते हो कि चेतना में कोई विविधता न हो? हमारे पूर्वज इस बात को समझते थे इसीलिए, उन्होंने दिव्यता के अनन्त गुणों व रूपों का ज्ञान कराया। चेतना नीरस और उबाऊ नहीं है। जो चेतना इस सृष्टि का आधार है, वह गतिमान और परिवर्तनशील है। ईश्वर एक ही नहीं, अनेक हैं। जब तुम दिव्यता की विविधता को स्वीकार करते हो, तब कट्टर और रूढ़िवादी नहीं रह जाते।