महर्षि वेदव्यास किसी नगर से गुजर रहे थे। उन्होंने एक कीड़े को तेजी से भागते हुए देखा। मन में सवाल उठा- एक छोटा सा कीड़ा इतनी तेजी से क्यों भागा जा रहा है? उन्होंने कीड़े से पूछा- ऐ क्षुद्र जंतु! तुम इतनी तेजी से कहां जा रहे हो? कीड़ा बोला- हे महर्षि, आप तो इतने ज्ञानी हैं, यहां क्षुद्र कौन और महान कौन? क्या इनकी सही-सही परिभाषा संभव है? महर्षि सकपकाए। फिर सवाल किया- अच्छा बताओ कि तुम इतनी तेजी से कहां भागे जा रहे हो? इस पर कीड़े ने कहा-अरे! मैं तो अपनी जान बचाने के लिए भाग रहा हूं। देख नहीं रहे कि पीछे कितनी तेजी से बैलगाड़ी चली आ रही है।  
कीडे के उत्तर ने महर्षि को फिर चौंकाया। वह बोले- पर तुम तो इस कीट योनि में पड़े हो। यदि मर गए तो तुम्हें दूसरा और अच्छा शरीर मिलेगा। इस पर कीड़ा बोला- महर्षि! मैं तो कीड़े की योनि में रहकर कीड़े का आचरण कर रहा हूं, पर ऐसे प्राणी बहुत हैं जिन्हें विधाता ने शरीर तो मनुष्य का दिया है, पर वे मुझ कीड़े से भी गया-गुजरा आचरण कर रहे हैं। महर्षि उस नन्हे से जीव के कथन पर सोचते रहे, फिर उन्होंने उससे कहा- चलो, हम तुम्हारी सहायता कर देते हैं। कीड़े ने पूछा- किस तरह की सहायता? महर्षि बोले-तुम्हें उठाकर मैं आने वाली बैलगाड़ी से दूर पहुंचा देता हूं। इस पर कीड़े ने कहा- धन्यवाद! श्रम रहित पराश्रित जीवन विकास के सारे द्वार बंद कर देता है। मुझे स्वयं ही संघर्ष करने दीजिए। महर्षि को कोई जवाब न सूझा।