बुद्धत्व मौलिक रूप से प्रांति है, विद्रोह है, बगावत है। काशी के पंडितों की सभा प्रमाणपत्र थोड़े ही देगी बुद्ध को! बुद्धपुरुष तुम्हें पोप की पदवियों पर नहीं मिलेंगे और न शंकराचायरें की पदवियों पर मिलेंगे। क्योंकि ये तो परंपराएं हैं। और परंपरा में जो आदमी सफल होता है, वह मुर्दा हो तो ही सफल हो पाता है। परंपरा के द्वारा पद पाना सिर्फ मुर्दों के भाग्य में हैं, जीवंत लोगों के नहीं। यह सौभाग्य है जीवितों का और मुर्दों का दुर्भाग्य! इसलिए तुम कैसे पहचानोगे? और पूरी पहचान का तुम विचार ही मत करना। क्योंकि तुम पूरा पहचानोगे तो तुम बुद्ध हो जाओगे और तुम बुद्ध होते तो पहचानने की जरूरत न थी। तुम नहीं हो, इसीलिए तो पहचानने चले हो।  
इसलिए पूरे-पूरे का खयाल मत करना। छोटा सा टुकड़ा चांदनी का तैर आए तुम्हारे पास, तो बहुत धन्यभाग! अहोभाग! तुम उतने ही पर भरोसा करना। उस चांदनी के टुकड़े को पकड़ कर अगर बढ़ते रहे,  चलते रहे, तो किसी दिन पूरे चांद के भी मालिक हो जाओगे। किसी दिन पूरा आकाश भी तुम्हारा हो जाएगा। तुम्हारा है; लेकिन अभी तुम्हें पहुंचना नहीं आया, चलना नहीं आया। अभी तुम घुटने के बल चलते हुए छोटे बच्चे की भांति हो। अभी तुम्हें चलने का अभ्यास करना है।  
तो संत उदास नहीं होंगे। बुद्धपुरुष उदास नहीं होंगे। जिनको तुम देखते हो मंदिरों-मस्जिदों में बैठे गुरु-गंभीर लोग, लंबे चेहरों वाले लोग, बुद्धपुरुष वैसे नहीं होंगे। बुद्धपुरुष तो उत्सव है। बुद्धपुरुष तो ऐसा है जिसमें अस्तित्व के कमल खिल गए। बुद्धपुरुष गंभीर नहीं। बुद्धपुरुष के पास तो मृदुहास मिलेगा। हल्की-हल्की हंसी। एक मुस्कुराहट। एक स्मित। एक उत्सव। एक आनंदभाव। तो तुम्हारी आंसुओं से भरी आंखों और कारागृह में दबे चित्त के पास अगर तुम्हें कभी कोई एक स्मित, एक हास, एक उत्सव की झलक भी आ जाए, तो छोड़ा मत उन चरणों को।  
उन्हीं के सहारे तुम परममुक्ति और स्वातंत्र्य के आकाश तक पहुंच जाओगे। अब तक तो तुम्हारी पहचान पतझड़ से थी। तुम्हारा जीवन राग आंसुओं और रुदन से भरा था। तुमने जीवन का कोई और अहोभाव का क्षण जाना नहीं था। नरक ही नरक जाना था। जिस क्षण किसी व्यक्ति के पास तुम्हें लगे- हवा का झोंका आया- स्वच्छ, ताजा, मलयाचल से चलकर, पहाड़ों से उतर कर तुम्हारी घाटियों में, तुम्हारे अंधेरे में- हवा का ऐसा झोंका जिसके पास अनुभव में हो जाए, समझना बुद्धत्व करीब है। कुछ घटा है।