लिंग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।।
सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा।।
संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी।।
श्रीरामचरितमानस लंकाकाण्ड २-३-४
श्रीराम को शिवजी के समान कोई प्रिय नहीं तथा शिवजी की भक्ति न करने वाला भी श्रीराम को कभी भी स्वप्न में नहीं प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार श्रीराम एवं शिव की भक्ति एक-दूसरे के बिना अपूर्ण है। इसको विशेष रूप से दृष्टिगत रखते हुए श्रीरामचरितमानस में शिवजी की पत्नी दक्षकुमारी सतीजी का श्रीराम की परीक्षा लेने का वर्णन बड़ा ही रहस्यपूर्ण है। सतीजी के पिता दक्ष प्रजापति के द्वारा शिवजी का यज्ञ में भाग न देने एवं शिवजी की निन्दा करने पर सतीजी ने उस समय योगाग्नि में शरीर भस्म कर डाला। तत्पश्चात शिवजी ने यज्ञ विध्वंस करने हेतु वीरभद्र को भेजा आदि का विस्तृत वर्णन दिया जा रहा है।
एक बार त्रेता जुग माहीं। संभु गए कुंभज रिषि पाहीं।
संग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ४८ (क)
एक बार त्रेतायुग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जनी भवानी (सतीजी) भी थीं। ऋषि ने सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर जानकर उनका अर्चन-पूजन किया। महर्षि अगस्त्यजी ने रामकथा बड़े ही विस्तारपूर्वक शिवजी को सुनाई, जिससे शिवजी को परमानन्द की प्राप्ति हुई। कुछ दिनों तक रामकथा सुनने के पश्चात् शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ कैलास की ओर चल पड़े। उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए भगवान् विष्णु (श्रीहरि) ने रघुवंश में अवतार लिया था। श्रीराम पिता के वचन से राज्य को त्यागकर तपस्वी वेष में दण्डकारण्य वन में थे। शिवजी के मन में श्रीराम के दर्शन की प्रबल इच्छा हो रही थी। सतीजी इस बात से अनभिज्ञ थीं। रावण ने ब्रह्माजी से अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथों से माँगी थी तथा प्रभु श्रीराम यह सत्य करना चाहते थे।
रावण ने मारीच को मायावी-कपट मृग बनाकर सीताजी के पास भेजा तथा छलकर सीताजी का हरण कर लिया। मृग को मारकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण के साथ आश्रम में आए तब उन्हें सीताजी नहीं मिली, आश्रम खाली था। श्रीराम की आँखें भर गईं। श्रीराम का चरित्र-लीलाएँ बड़ी ही विचित्र हैं। उसे श्रेष्ठ ज्ञानी एवं सच्चा श्रीरामभक्त ही समझ सकता है। जो मन्दबुद्धि है वे विशेष रूप से मोह एवं अज्ञान के अंधकार से पीड़ित होने के कारण उनेक चरित्र-लीलाओं को समझ नहीं पाते हैं। संयोगवश शिवजी ने उसी दु:ख भरे सीताहरण के बाद श्रीरामजी को देखा और हृदय में अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ। शिवजी ने उचित अवसर-समय न जानकर परिचय नहीं किया। जगत् को पवित्र करने वाले सच्चिदानन्द की जय, ऐसा कहकर शिवजी चल पड़े। भोलेनाथ बार-बार आनन्द की अनुभूति कर के सतीजी के साथ चले जा रहे थे।
सतीजी को यह सब देखकर मन में बड़ा सन्देह हुआ कि सृष्टि में सब शिवजी की वन्दना करते हैं फिर शिवजी ने एक राजपुत्र को सच्चिदानन्द परमधाम कहकर क्यों प्रणाम किया? जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेद रहित है तथा जिसे वेद भी नहीं जानते क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है? देवताओं के हितार्थ विष्णु भगवान् ने मनुष्य का शरीर धारण किया वे ज्ञान के महासागर-भण्डार है क्या अज्ञानी की तरह एक स्त्री को खोजेंगे। सतीजी ने मन में विचार किया कि शिवजी के वचन कभी भी असत्य नहीं होते हैं। शिवजी तो सर्वज्ञ हैं तथा सतीजी के हृदय में यह सब देखकर अपार सन्देह उत्पन्न हुआ। भवानी (सतीजी) ने यह सन्देह शिवजी के समक्ष प्रकट नहीं किया। किन्तु शिवजी अन्तर्यामी हैं वे सब समझ गए। शिवजी ने सतीजी से कहा सुनो तुम्हारा स्त्री स्वभाव है, अत: ऐसा सन्देह मन में कभी न रखो।
जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई।।
सोइ मम इष्टदेव रघुवीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ५१-४
शिवजी सतीजी से कहते हैं जिनकी कथा का ऋषि अगस्त्य ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, वे वही मेरे इष्टदेव श्रीरामचन्द्रजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदैव करते रहते हैं। शिवजी ने कहा कि श्रीरामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए अपनी स्वयं की इच्छा से रघुवंश में अवतार लिया है। यद्यपि शिवजी ने अनेक प्रकार से सतीजी को समझाया किन्तु सतीजी को उनका उपदेश समझ में नहीं आया। उस समय शिवजी के मन में भगवान् की माया एवं प्रभाव जानकर हँसते हुए बोले-
जौ तुम्हरें मन अति संदेहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू।।
तब लगि बैठ अहउँ वटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं।।
जैसें जाहू मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी।।
चलीं सखी सिव आयसु पाई। करहि बिचारु करौं का भाई।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ५२-१-२
जो तुम्हारे मन में सन्देह है तुम जाकर उनकी परीक्षा क्यों नहीं ले लेती हो? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड़ (वटवृक्ष) की छाँह में बैठा रहूँगा। किसी भी प्रकार तुम्हारा यह अज्ञान से भरा भारी भ्रम दूर न हो जाए। विवेक से सोच विचार कर तुम वही करना। शिवजी की आज्ञा पाकर सती वहाँ से चल दी और मन में सोचने लगी कि अब क्या करूँ अर्थात् परीक्षा किस प्रकार लूँ। सतीजी के जाने के बाद शिवजी के मन में ऐसा अनुमान किया कि अब सती का कल्याण नहीं है जबकि मेरे समझाने पर भी इनका सन्देह दूर नहीं हुआ। तब लगता है कि विधाता ही उलटे हैं तथा सती का इसमें कुशल मंगल नहीं है।
होइहि सेाइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।।
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गई सती तहँ प्रभु सुखधामा।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ५२-४
जो कुछ श्रीराम ने रचकर रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन विस्तार (शाखा) बढ़ावे। ऐसा मन में शिवजी भगवान् श्रीहरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं जहाँ सुख के धाम प्रभु श्रीरामजी थे। सतीजी ने सीताजी का रूप धारण कर लिया तथा उस मार्ग की ओर आगे चल पड़ी, जिस मार्ग पर सतीजी की विचारधारा के अनुसार मनुष्यों के राजा श्रीराम आ रहे थे।
लछिमन दीख उमाकृत वेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा।।
कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ५३-१
सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी आश्चर्यचकित हो गए और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गम्भीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीरबुद्धि लक्ष्मण प्रभु श्रीरघुनाथजी के प्रभाव को जानते थे। सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की बात जानने वाले, देवताओं के देवता, स्वामी श्रीराम सतीजी के कपट को समझ गए। स्त्री स्वभाव के अनुसार सतीजी ने सर्वज्ञ भगवान् श्रीराम से छिपाव किया। तब हँसकर श्रीराम ने अत्यन्त ही मीठी वाणी में कहा-
जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रणामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू।।
कहेउ बहोरि कहाँ वृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू।।
श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड ५३-४
सर्वप्रथम श्रीराम ने हाथ जोड़कर सतीजी को प्रणाम किया और सतीजी के पिता सहित उनका नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए घूम (फिर) रही हो?
श्रीराम के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर सतीजी को बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई शिवजी की बात न मानने और श्रीराम के प्रति अज्ञान होने से भयभीत थीं। सतीजी सोच में पड़ गई कि अब शिवजी को क्या उत्तर दूँगी। इधर श्रीराम ने जान लिया कि सतीजी को दु:ख हुआ, तब उन्होंने कुछ अपना प्रभाव प्रकट कर बताया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्रीरामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मण सहित आगे चले जा रहे हैं। इस समय सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्रीराम के सच्चिदानंद स्वरूप को देखें, वियोग और दु:ख की कल्पना जो उन्हें हुई थी वह दूर हो जाए। सतीजी ने पीछे की ओर घूमकर देखा तो वहाँ भी लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्रीराम सुन्दर वेष में दिखाई दिए। सतीजी जिधर देखती उधर ही प्रभु श्रीराम विराजमान हैं तथा मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं। सतीजी ने अनेक प्रकार के वेष धारण किए सभी देवता श्रीराम की चरण वन्दना और सेवा कर रहे हैं। सतीजी को सब जगह श्रीराम, वही लक्ष्मण और वही सीताजी यह सब देखकर बहुत डर गईं। वे आँखें मूँद कर अपनी सुध-बुध खोकर मार्ग में बैठ गईं। पुन: आँखें खोलकर देखा तो वहाँ सतीजी को कुछ भी नहीं दीख पड़ा। तब वे बारम्बार श्रीरामजी के चरणों में सिर नवाकर शिवजी के पास चल दीं।
जब सतीजी शिवजी के पास पहुँचीं, तब शिवजी ने हँसकर उनसे पूछा कि तुमने श्रीरामजी की किस प्रकार परीक्षा ली। सच-सच बताओ। सतीजी ने श्रीराम के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाया और कहा हे स्वामिन्! मैंने उनकी कोई परीक्षा नहीं ली तथा आपके समान ही प्रणाम किया। आपने जो कुछ श्रीराम के बारे में कहा था, वह सब सत्य है। झूठ नहीं हो सकता। यह सुनकर शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो कुछ चरित्र किया सब कुछ जान गए। शिवजी ने श्रीराम की माया को शीश नवाया, जिसकी प्रेरणा करके सतीजी के मुख से झूठ कहला दिया। शिवजी ने मन में विचार किया कि श्रीहरि इच्छा रूपी भावी प्रबल है।
सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी को बड़ा दु:ख हुआ। उन्होंने विचार किया कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्ति मार्ग लुप्त हो जाएगा और बहुत बड़ा अन्याय होता है। यद्यपि सती पवित्र है इसलिए इन्हें छोड़ते भी नहीं बनता और प्रेम करने में महापाप होता है। यह सब सोच विचारकर शिवजी कुछ भी नहीं कहते हैं तथा उनके हृदय में बड़ा दु:ख होता है। शिवजी ने श्रीरामजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्रीराम का स्मरण करके यह विचार किया कि सती के इस शरीर से मेरी पति-पत्नी के रूप में भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने यह दृढ़ संकल्प कर लिया। कैलास को जाते समय एक आकाशवाणी हुई कि हे महेश! आपकी जय हो। आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है? आप श्रीराम के भक्त हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने बड़े ही सकुचाते हुए शिवजी से पूछा- हे कृपालु! कहिये आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है। सतीजी ने अनेक प्रकार से पूछा किन्तु शिवजी ने कोई उत्तर नहीं दिया। अब सतीजी समझ गई कि सर्वज्ञ शिवजी सब कुछ जान गए हैं। मैंने शिवजी से कपट किया है। शिवजी के रुख एवं व्यवहार को देखकर सतीजी समझ गई कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया है और वे व्याकुल हो उठी। शिवजी ने सतीजी को चिन्तायुक्त और दु:खी देखकर उन्हें मार्ग में सुन्दर-सुन्दर कथाएँ और विविध इतिहास बताया तथा कैलास पहुँच गए।
अपनी प्रतिज्ञानुसार शिवजी ने बड़ (वट) के वृक्ष के नीचे अखण्ड और अपार समाधि लगा ली। सतीजी का एक-एक दिन कैलास में युग के समान बीत रहा था। सतीजी को बड़ी आत्मग्लानि हुई कि उन्होंने श्रीराम का अपमान किया तथा पति के वचनों को असत्य समझा। सतीजी ने श्रीराम का स्मरण करके कहा कि आप दु:ख को हरने वाले हैं अत: मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह छूट जाए। सत्तासी हजार वर्ष उपरान्त शिवजी ने समाधि खोल दी। शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे तब सतीजी समझ गई कि शिवजी जाग गए हैं। उन्होंने जाकर शिवजी के चरणों को प्रणाम किया। शिवजी ने उन्हें बैठने के लिए सामने आसन दिया। उसी समय सतीजी के पिता दक्ष प्रजापति बने। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया। दक्ष को इतना बड़ा पद प्राप्त होने से वह अत्यन्त अभिमानी हो गया।
दक्ष ने सब मुनियों को बुलाकर एक बड़ा यज्ञ करने का निर्णय लिया। जो देवता यज्ञ का भाग पाते हैं, दक्ष ने उन सबको आमन्त्रित किया। दक्ष ने किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सब देवता तथा उनकी स्त्रियों सहित आने का निमन्त्रण दिया। विष्णु, ब्रह्मा और शिवजी को छोड़कर सभी देवता अपना विमान सजाकर चले। सतीजी ने आकाश में अनेक विमान जाते देखे तथा उन देवताओं से जाने के स्थान का नाम पूछा। पिता के द्वारा यज्ञ किए जाने की बात सुनकर प्रसन्न हो उठे। सती सोचने लगी कि यदि शिवजी मुझे आज्ञा दें तो मैं इसी बहाने कुछ दिन पिता के घर जाकर रहूँ। क्योंकि सतीजी के हृदय में पति द्वारा त्यागी जाने का बड़ा भारी दु:ख था। अन्त में सतीजी ने भय, संकोच और प्रेमरस में भरी वाणी से शिवजी से कहा कि हे प्रभो! मेरे पिता के यहाँ बड़ा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं आदर सहित उसे देखने जाऊँ।
शिवजी ने सती से कहा कि तुम्हारे पिता ने हमें न्योता नहीं भेजा है। उन्होंने अपनी सब लड़कियों को न्योता दिया है किन्तु हमारे बैर के कारण उन्होंने तुमको भी भुला दिया है। एक बार ब्रह्मा की सभा में तुम्हारे पिता हमसे अप्रसन्न हो गए थे, उसी से वे अब हमारा अपमान कर रहे हैं। हे भवानी जो तुम बिना बुलाए जाओगी तो न शील-स्नेह ही रहेगा और न मान-मर्यादा ही रहेगी।
यद्यपि मित्र प्रभु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न संदेहा।।
तदपि विरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएं कल्यानु न होई।।
श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड ६२-३
यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता है। शिवजी ने सतीजी को अनेक प्रकार से समझाया किन्तु होनहारवश उनके हृदय में बोध नहीं हुआ। तब शिवजी ने सतीजी को अपने मुख्य गणों के साथ उनको विदा कर दिया। सतीजी जब उनके पिता दक्ष के घर पहुँची, तब दक्ष के भय से किसी ने उनकी आवभगत नहीं की, सिर्फ उनकी माता प्रेम से मिली। दक्ष ने सती से कुशल तक नहीं पूछी। जब सती ने यज्ञ में जाकर देखा तो वहाँ कहीं शिवजी का भाग दिखाई नहीं दिया। सतीजी को शिवजी ने जो कहा था वह अब समझ में आया। पति के अपमान की ज्वाला से उसका हृदय जल उठा। सतीजी को क्रोध आया देखकर उसकी माता ने उन्हें बहुत समझाया। सतीजी ने सारी सभा को डाँटकर कहा- हे सभासदों और मुनीश्वरों जिन लोगों ने यहाँ शिवजी की निन्दा की या सुनी है उसका फल उन्हें तुरंत मिलेगा तथा मेरे पिता दक्ष प्रजापति अब पछताएंगे। जहाँ संत, शिवजी और विष्णु भगवान् की निन्दा सुनी जाएँ वहाँ ऐसी मर्यादा है कि अपना वश चले तो उस निन्दा करने वाले की जीभ काट ले और नहीं तो दोनों कान मूँदकर वहाँ से चला जाए। त्रिपुर दैत्य का वध करने वाले महेश्वर सम्पूर्ण जगत् के आत्मा हैं, वे जगत्पिता हैं तथा सबका हित करने वाले हैं। मेरे मन्दबुद्धि पिता उनकी निन्दा करता है और मेरा शरीर दक्ष के वीर्य से उत्पन्न है।
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चंद्रमौलि वृषकेतू।।
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मरव हाहाकारा।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ६४-४
अतएव चन्द्रमा को ललाट पर धारण करने वाले, वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरन्त ही त्याग दूँगी। ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला। सम्पूर्ण यज्ञशाला में हाहाकार मच गया। सती का मरण सुनकर शिवजी के गण, यज्ञ विध्वंस करने लगे। यज्ञ विध्वंस होते देखकर मुनीश्वर भृगुजी ने उनकी रक्षा की। ये सब समाचार शिवजी को मिले तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। उन्होंने जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को दण्ड दिया, दक्ष की गति शिवद्रोही के रूप में हुई।
सती मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा।।
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई।।
श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड ६५-३
सतीजी ने मृत्यु के समय भगवान श्रीहरि से यह वरदान माँगा कि उनका जन्म-जन्म में शिव के चरणों में अनुराग रहें। इसी कारण उन्होंने हिमालय के घर जाकर पार्वतीजी के शरीर से जन्म लिया। सतीजी के जीवन का मार्मिक प्रसंग श्रीरामचरितमानस में अपना विशेष स्थान रखता है।